Saturday, June 27, 2020

प्रीत

      प्रीत

तेरे रंग की रंगत में,

कही रंग ना जाउं,

तेरे साथ रहने की,

कसमें ही खाउ,

निज प्रेम से बांध लूं,

अब तुम्हे मैं,

मेरे माधव को मै ही,

चवर बस घुमाउ,

समझता जगत ये,

पागल भिखारी,

फटी सी दुशाला से,

फिर भी तुझको रिझाउ,

हे मेरे कान्हा, बांके बिहारी,

जब प्रीती में तेरे,

तो शरण किसके जाऊ ।

                                                                 पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल


Thursday, May 28, 2020

अनकही

अनकही

        सुनीता ! सुनीता ! राहुल नहाते हुए बाथरूम से अपनी पत्नी को दो बार आवाज देता है लेकिन सुनीता किचन में भोजन बना रही थी , बीच-बीच में आकर कमरें में एक-एक सामान यादकर राहुल के जरूरी सामानों के बेड पर रख रही थी । दो-तीन शर्ट देखने के बाद एक शर्ट-पैन्ट निकालकर बेड पर रख देती है । सुनीता भी किचन से आने के कारण पसीने से पूरी तरह लथपथ थी तो अपनें आंचल से शीशे में मुंह देखकर उसे पोछते हुए उसी आंचल से अपने चेहरे को हवा देने के कारण वह राहुल की आवाज नही सुन पाती है ।
        तभी अचानक बाथरूम का दरवाजा खुलता है और राहुल एक तेज आवाज में जोर से चिल्लाता है सुनीता । ध्यान कहां है तुम्हारा ? दिन भर बैठकर अपना खुसट सा चेहरा आईना में देखती रहती हो । कितनी बार बोला हुं कि तौलिया बाथरूम में रख दिया करों नहाते वक्त । एक तो लेट हो रहा है आफिस जाने के लिए और एक तुम हो कि एक काम नही कर सकती हो । सुबह से बस बैठी हो बिना बोले तुम एक काम नही कर सकती हो ।
        सुनीता को अब तक नही समझ आया कि राहुल किस बात के लिए उसे इतना सुना रहा है । वैसे शादी के इतने वर्ष बीतने के बाद अब तो वह राहुल के गुस्से की बातों को अनसुना करके बस राहुल के ही सारे काम को करने में लगी थी । सुनीता तुरन्त बाथरूम से जाकर राहुल को तौलिया ही दे रही थी कि किचन से कुकर ने सीटी मारकर सुनीता को बुला लिया , जैसे कुकर भी ताना मार रहा हो सुनीता को, कि तुम एक काम बिना बोले न कर सकती । मैं यहां कब से तुमको आवाज दे रहा हुँ और तुम आंगन में नाच रही हो ।
        किसी तरह से सुनीता सारा भोजन तैयार करने के बाद राहुल को पूजा करनी थी तो उसके लिए दीपक को बनाकर बगल में ही माचिक आदि रख देती है, लेकिन जैसे ही राहुल देखता है तो फिर से आवाज देता है कि थोड़ा ध्यान से पूजा कर लिया करों । काश तुम बिना बोले एक भी काम कर लेती ।
        सुनीता बिना कुछ बोले सीधे बेडरूम में आती है और बेड पर ही भोजन लगाकर राहुल का इन्तजार करने लगती है । राहुल पूजा करने के बाद कपड़े पहनने लगता है । कपड़े पहनते वक्त वह फिर सुनीता को टोकता है कि कम से कम एक शर्ट तो ढंग से प्रेस कर दिया करों । दिन भर बैठी रहोगी लेकिन तुमसे एक कपड़ा तक प्रेस नही हो पाता सही से । उसके बाद वह भोजन करने लगता है । 
        सुनीता उसके पर्स, पेन, घड़ी, हैंकी सभी को एक-एक करके राहुल को देती जाती है । राहुल सीधे टिफिन बाइक लेकर बाइक पर बैठता है तो देखता है कि सुनीता जल्दी से भागते हुए आ रही है , उसके हाथ में मोबाइल था जो कि लाकर राहुल को देती है और अपने सजल आँखों से राहुल की तरफ देखती रहती है, जैसे कि वह चाहती हो कि राहुल बस एक बार गले लगकर उससे बोल दे कि दिन-भर आराम से रहना और भोजन कर लेना लेकिन राहुल तो जल्दी में था , तो लापरवाही से बोलता है कि क्या हुआं, मुंह क्यु बनायी हो , कुछ बोलना हो तो बोलों नही तो मैं निकलू मुझे वैसे भी देरी हो रही है । इतना सुनने के बाद सुनीता अपने आंखों के आंसुओं को छिपाते हुए बस इतना ही बोल पाती है कि काश ! आप बिना बोले ही मेरी अनकही बातों को समझ पातें.............     इतना बोल के सुनीता गेट बन्द करके अपने कमरे में चली जाती है और राहुल के कल के कपड़ों को लाकर धुलने लगती है ।

पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से


Wednesday, May 27, 2020

श्रीराम स्तुति


राजीवलोचन भगवान श्रीरामचन्द्र की यह स्तुति सप्ताक्षरी है । इसके प्रत्येक चरण में 7 अक्षर(आधे अक्षर की गिनती नही की जाएगी) तथा एक लाइन में 14 अक्षर है । 
जामदग्न्यमहादर्पदलन -  परशुरामजी के महान अभिमान को चूर्ण करने वाले प्रभु श्रीराम


श्रीराम स्तुति

ब्रह्माजी विवस्वान, इक्ष्वाकु औ' विकुक्षि,
त्रिशंकु हरिश्चन्द्र, राम के पूर्वज है ।
दिलीप भगीरथ,शंखड़ सुदर्शन ,
नहूष ययाति के, कुल के दीपक है ।
प्रपौत्र नाभाग के, पौत्र है ये अज के ,
सुर्यवंशी कुल के, नाम रघुकुल है ।
लाल है कौशल्या के, पुत्र दशरथ के,
भ्राता है लखन के, अयोध्या के राजा है ।
जमाई है जनक के, पति मातु सीता के,
शिष्य विश्वामित्र के, सुग्रीव के मित्र है ।
सेवक कपीस है, झुकें दसशीश है ,
पूजते हरीश है, कहें जगदीश है ।
ऐसे जितेन्द्रिय जितक्रोध: जितलोभ,
जामदग्न्यमहादर्पदलन राघव को,
भक्त अखिलेश का,साष्टांग प्रणाम है ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल
चित्रः गुगल साभार

Tuesday, May 26, 2020

कथा और कथानक


कथा और कथानक

कथा एवं कथानक दोनो ही शब्द संस्कृत के कथ धातु से बने हुए है । कथा का मतलब होता है महात्म्य या कोई कहानी लेकिन हमारे धर्म में कथा का सबसे प्रचलित रूप है किसी ईश्वरीय गाथा को पूर्ण मनोयोग एवं विधि-विधान के साथ सुनना । कथानक का अर्थ है किसी रचना की आदि से अंत तक की सब बातों का सामूहिक रूप । आइए आज हम इस पर विस्तृत रूप से चर्चा करते है।
          आज से कुछ समय पहले मेरे यहां भगवान श्री सत्यनारायण कथा का आयोजन हुआ । प्रायः यह देखा गया है कि कथा का आयोजन दिन के मध्य अर्थात् दोपहर के समय ही किया जाता है जिससे कि सभी व्यक्ति अपने कार्यों को पूर्ण करके यथा समय कथा को सुनने के लिए एकत्रित हो सकें और भगवान की कथा का रसास्वादन कर सकें । सभी व्यक्ति एकत्रित तो कथा सुनने के लिए होते है लेकिन उनकी चर्चा कथा से दूर हटकर कथानक का स्वरूप ले लेती है ।
          दोपहर के समय बारी-बारी से गांव की महिलाएं और प्रत्येक घर से व्यक्ति अब मेरे दरवाजे पर आने लगे थे कथा सुनने के लिए । एक घन्टे के अन्दर ही पूरा दरवाजा भर चुका था पुरूषो से तथा घर का आंगन सभी महिलाओं और बच्चों से जो कि आज आए हुए थे । दादी-दादा पैरों में रंग लाकर पूजा स्थल पर यजमान के स्थान पर बैठे हुए थे । महाराज जी का आसन अभी भी सुनसान सा पड़ा हुआ था । सबसे खास बात यह थी कि श्री सत्यनारायण भगवान, शालिग्राम जी , यजमान एवं गांव के सभी सम्मानित लोग कथा सुनने के लिए एकत्रित हो चुके   थे । जिनकी कथा (श्रीहरि विष्णु) सुननी थी और जिसे (यजमान) सुनना था , दोनों ही लोगों ने आमने-सामने अपना आसन ग्रहण कर लिया था परन्तु अभी तक जिसे कथा सुनानी थी मतलब हमारे पुरोहित जी उनका आगमन न हो पाया था ।
          कुछ समय इन्तजार करने के पश्चात् मुझे अवारा घोषित कर दिया गया कि अभी तक बैठ के यहां पर मुंह देख रहे हो सबका ,जाओं जल्दी से महराज जी को बुलाकर लाओं । मैं भी अन्तर्मन से कुढ़ते हुए उनको बुलाने के लिए उनके घर की तरफ निकल पड़ा । रास्ते में देखता हुँ तो महाराज जी खड़ाऊं पहने हुए अपने दाएं हाथ की कांख में एक लाल कपड़ें में पोथी को दबाएं हुए चले आ रहें थे। उनके मुख में मुखशुद्धि हेतु बढ़िया पान खाए हुए थे , जिसके लाल रंग की पीक उनके होठों से होते हुए सीधे नीचे की तरफ उनकी ठुड्डी की तरफ एक सरल रेखा में बह रही थी, जिसे वो हर दो मिन्ट पर साफ कर रहे थे । इतना में हम दोनो लोग दरवाजे पर पहुंच चुके थे । सभी लोगों ने एक स्वर में महराज को प्रणाम किया, जिसका महराज जी बिना रूके ही अपने हाथ को उठाकर सबको जय हो के घोष के साथ ही घर में प्रवेश करते है । सभी महिलाएं उनके चरण स्पर्श करती है और महराज जी निर्बाध रूप से सबको दीर्घायु भव आदि का आशीर्वाद देते हुए सीधे अपना आसन ग्रहण करते है । जैसे ही आसन ग्रहण करते है महाराज जी उसके बाद से ही 3-4 लोग बस उनके द्वारा दिए गए निर्देशों का अक्षरशः पालन करने में जुटे हुए होते है । कभी बोलते जल लाओं, कभी बोलते अक्षत लाओं, कभी वो माला-फूल को ढूंढते हुए बोलते कि इतनी देर में आए फिर भी आप लोग पूरी तरह से व्यवस्था न कर पाएं । मेरे दादा जी को देखते हुए बोलते है कि इतने दिन से सब आप कर रहे है लेकिन एक भी व्यवस्था ढंग से न किए हो । इतना सुनना बस था उसके बाद दो मेरे दादा जी मेरे घर के सभी व्यक्तियों को क्रमवार नामबद्ध तरीके से उनके कई पुश्तों को याद कर दिया । साक्षात् नारायण इस समय के साक्षी थे जब वो सभी को इस प्रकार का सर्वसुलभ आशीर्वाद प्रदान कर रहे थे । किसी तरह विधि-विधान से पूजा-अर्चन करने के उपरान्त कथा का प्रारम्भ हुआ । महाराज जी एक बार शंख बजाकर सत्यनारायण भगवान का कथा का प्रारम्भ करते हुए सभी महिलाओं से कथा सुनने का विशेष आग्रह करते है, जैसे कि उन्हे पहले से ही अनुमान था कि कोई भी कथा न सुन रहा है । इस प्रकार से कथा प्रारम्भ होती है ।
          कथा  प्रारम्भ होने के पश्चात पूर्णतया यह प्रयास किया जाता है कि यजमान और महाराज जी बीच में न बोले , बस इसी बात का लाभ उठाते हुए आंगन में बैठी हुयी सभी महिलाओं का कथानक प्रारम्भ होता है । एक प्रकार से उन्होने भी अपनी बातों का भी एक विजयी स्वर से उच्च कोलाहल युक्त वार्ता का शंखनाद कर दिया था ।
          आंगन में महिलाओं कई अलग-अलग मण्डली की तरह बैठी हुयी थी, जिसे देखकर यह प्रतीत हो रहा था कि जैसे किसी खेल का आयोजन किया गया हो और अलग-अलग देश के खिलाड़ी अपने-अपने समूह में बैठे हो । सासु जी लोगों का एक अलग समूह थी , जिसमें सिर्फ आज के नई बहुओं की चर्चाएं हो रही थी कि आजकल की बहुएं एकदम से निर्लज्ज और बेहा हो गयी । जब देखों अपने मन्सेधु(पति) से सबके सामने ही बात करती रहती है, एक पैसे का न शरम है औ न लिहाज । एक हमलोग थे कि ससुर की बात तो दूर चिन्टुआ के पापा भी आज तक मेरी मुंह सही से न देख पाएं । कही बाहर मिल जाए तो शायद पहचान भी न पाएं ।
          दूसरी तरफ नयी बहुओं का समूह थी , जिसमें सिर्फ सासु मां की बुराईयां चल रही थी । एक हमार माई हयीन वो त बस छोटकी पतोहुं(छोटी बहू) को ही मानती है , इसीलिए मैं तो अब उनकी बात ही न सुनती । जब सभी लोगों ने क्रमवार अपनी-अपनी सासु मां का विधिवत् सचित्र वर्णन करने के उपरान्त फिर साड़ियों का दौर चला , जिसमें सभी लोगों ने एक-दूसरे के साड़ियों की प्रशंसा की और बताया कि कौन सी साड़ी उनके मां ने , कौनी सी उनकी भाभी ने और कौन सी उनके भैया ने दी थी । एक लाचार व्यक्ति पति ही थी , जिसने आज तक जीवन में उन लोगों के लिए कुछ नही किया था । इस दुनिया का सबसे निकम्मा और अवारा व्यक्ति उनकी पति ही था तथा इस संसार का सबसे सभ्य, चरित्रवान व्यक्ति उनकी भाई तथा सबसे अच्छी महिला उनकी मां थी । कुछ अतिवृद्ध महिलाएं भी थी जो कि बस बहुओं के पल्लू को देख रही थी कौन सी और सर पर पल्लू रखी है और कौन नही । किस औरत का मुंह साड़ी के बाहर दिख रहा है या नही । शर्म-हया का कथा ही सुनाने में वो अलग व्यस्त थी ।
           कुछ गांव की ननदे भी आयी थी जो बस अपने भाभी से हंसी-ठिठोली में ही व्यस्त थी । एक लड़की बोलती है कि का हो भाभी देखत हई तोहार ध्यान भैया पर ही है, पूजा में तोहार मन नाही लागा ता । इतना सुनते ही भौजी ने भी पलटवार करते हुए बोली-अरे नाही दीदी वो तो हम देख रहे है कि आपके भैया हर दो मिनट पे आकर आपको ही देख रहे है । ऐसा क्या कर दी हो अपने भैया के साथ जो तुमको छोड़ ही न रहे है । जब तोहसे खाली पावई तब न देखई हमई । इसी प्रकार से उन सभी का आपस में हंसी मजाक चल रहा था ।
          बाहर दरवाजे पर सभी गणमान्य लोग बैठे हुए थे जो कि कथा सुनने के लिए आए थे लेकिन कथा तो सुन नही पा रहे थे लेकिन जब भी शंख की ध्वनि सुनाई दे जाए तो हाथ जोड़कर विनम्र भाव से एकाग्र मन के साथ प्रणाम करते । यह दृश्य भी बड़ा ही अलौकिक लगता था देखने में क्युंकि बाहर भी लोग कई समूहों में विभाजित थे , उनका विभाजन समसामयिक मुद्दों और अपने रूतबों को लेकर था । एक महाशय तो बता रहे थे कि कल थानेदार साहब ने एक गाड़ी पकड़ लिए थे और छोड़ ही न रहे थे फिर क्या सोनूवा आया और मुझे सारी बतायी । तुरन्त ही मैं थाने पर गया , मुझे देखते ही थानेदार साहब चलकर बाहर आए और चाय-पानी बैठाकर कराए , गाड़ी भी छोड़े । उन्होने तो बोला कि आपको आने की जरूरत क्या थी बस इसको एक बार बता देना था कि आपका छोटा भाई है । इसी बात पर एक दूसरे महाशय ने उनका कटाक्ष करते हुए बोला कि अरे उ थानेदरवा चोर है और तोहउ वैसई हय । बस इसी बात पर दोनों लोगों की कहा-सुनी बढ़ती गयी और हाथा-पायी की नौबत तक आ गयी । इतना होते देख गांव के लोगों ने किसी तरह अलग-अलग करके कुछ लोग दोनो लोगों को समझाने लगें । किसी तरह मामला शान्त  हुआ । 
          इतना  हो ही रहा था कि महराज जी बाहर निकले और बोले कि कथा समाप्त हो चुकी है , चलो प्रसाद बांट दो सबकों । सभी लोग कथानक में व्यस्त थे किसी को भी कथा का ध्यान ही न था महाराज जी को देखकर सबको याद आया कि घर के अन्दर कथा भी चल रही है । कुल मिलाकर उस दिन मुझे यह पता चला कि कथा के एकमात्र श्रोता पण्डित जी ही थे जिन्होने उसको आत्मसात् किया था क्युंकि मुझे लगता है कि उन्हे अब इसकी आदत पड़ चुकी थी । इस प्रकार कथा एवं कथानक दोनों ही कुछ देर में समाप्त हो गया ।   





Monday, May 25, 2020

जी सर


जी सर
जी सर

वर्तमान समय में समाज के शिक्षित एवं विकसित बौद्धिक स्तर वाले व्यक्तियों में एक शब्द जी सर का अत्य़धिक मात्रा में प्रयोग किया जा रहा है । जी सर और सर जी शब्द में इतना विशाल अन्तर होगा यह तो आपको किसी आफिस में जाने पर ही पता चलेगा । सर जी एक प्रकार से प्रश्नवाचक शब्द है, जब आपको किसी व्यक्ति या अपने से वरिष्ठ व्यक्ति से कुछ पुछना हो तो वहां पर इस शब्द का प्रयोग कर सकते है परन्तु जी सर, जी हुजूरी का शब्द है जिसे आप खुश रखने के साथ ही अन्य मह्तवपूर्ण स्थानों पर भी कर सकते है । जी सर शब्द बोलने वाला व्यक्ति कभी-कभी आत्म-ग्लानि से भरा हुआ होता है परन्तु जी सर शब्द सुनने वाला व्यक्ति सदैव ही आत्ममुग्ध होता है तथा अपने आपको सदैव गर्वान्वित महसुस करता है ।
          समस्त कार्यालयों में जितने भी जुनियर कर्मचारी है, वह अपने अधिकारियों से जब भी कोई वार्ता करते है तो वहां पर वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा बोले गए शब्दों का अक्षरशः पालन करने हेतु जी सर शब्द का प्रयोग किया जाता है । यदि दो वार्ता करने वाले व्यक्तियों के मध्य दो पद से अधिक का अन्तर है तो वहां पर यह शब्द अपने मूलभाव से इतर का भाव व्यक्त करता है, क्युंकि उस स्थान पर जुनियर कर्मचारी अपने अधिकारी के समस्त जवालों का जवाब बस अपनी गर्दन को उनकी सहमति में हिलाते हुए, उसके जवाब हेतु जी सर का प्रयोग करता हैजी सर एक ऐसा शब्द है जो कि सहमति के साथ-साथ सभी सवालों का जवाब भी अपने अन्दर समेटे हुए है ।
          कभी-कभी तो ऐसी भी स्थिति देखी गयी है कि अधिकारी कुछ भी पूछ रहा है और कर्मचारी के द्वारा बस जी सर, जी सर, सर, सर के द्वारा ही जवाब दिया जाता है । इस प्रकार का अद्वितीय शब्द का चलन अब बढ़ता ही जा रहा है, यहां तक कि कभी-कभी तो किसी सुअवसर या गोष्ठी में गाली खाने के उपरान्त भी प्रतिउत्तर में जब जी सर सुनने को मिलता है तो लगता है यह शब्द तो शालीनता का बोध कराता है । सामने वाला व्यक्ति इतने क्रोधित स्वर एवं कर्कश आवाज में सवाल पूछ रहा है और फटकार लगा है, उसके बाद भी सामने वाले सर झुकाकर इतने निष्कपट एवं केन्द्रित भाव से सहजतापूर्वक जी सर बोलते हुए अपने गर्दन को 45 डिग्री पर सामने की तरफ उसके समक्ष झुकाता है, जैसे कोई भक्त अपने भगवान को देखकर पूर्णतया ध्यानमग्न होकर अपने आप को उनके समक्ष समर्पित कर देता हो । यह भक्तिमय भाव अपनी आत्मा को शुन्य के भाव पर लाकर रख देता है । ऐसा लगता है कि जैसे जी सर बोलने वाले व्यक्ति के अन्दर वैराग्य का भाव आ गया हो और जी सर बोलते हुए मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हो कि "हे ईश्वर ! ये आपकी संतान है , इनकी गलतियों को आप क्षमा कर देना "
          इसलिए अपने देश में जिस तरह से अंग्रेजी भाषा का विकास हो रहा है , उसे देखते हुए कुछ सालों के बाद कर्मचारियों को ट्रेनिंग में जी सर बोलने के अलावा और कुछ भी सिखाने की जरूरत नही पड़ेगी क्युंकि यह शब्द स्वयं में ही इतना सारगर्भित है कि किसी भी स्तर पर आप इसका प्रयोग कर सकेगें । समझ गए सर................. जी सर .........

पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से

श्रीकृष्ण स्तुति


  ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे ।। 

श्रीकृष्ण स्तुति


श्रीकृष्ण स्तुति
कान्हा के मग में, मीरा मगन हैं ।
केशव के नख में, गगन ये नगण है ।
गोपियों के रंग में, माधव रगन है ।
देखि ये मरम उधौ, हृदय नमन है ।

देवकी के लाल है , काल है कंस के,
बाल है यशोदा के, लाल नन्द नन्द के ।
ब्रज के रज है, धुलि है मग के,
चिह्न है कान्हा के, पग है चलन के ।
ग्वालन के मोहन है, वट है कानन के,
चोर है माखन के , नयन चतुरानन के ।
श्रीदामा के साथी है, साथ है सुदामा के,
मित्र है मधुमंगल के, पितृ प्रतिभानु के ।
संगी है विशाल के, मनमीत है रसाल के,
बाहु है सुबाहु के, बुभुक्षु भोज-भोज के ।
संदीपनी के शिष्य है, प्रियतम है राधा के ,
सखा है अर्जुने के , गोप ग्वाल संग के ।
शरण है कमला के, नीर है कालिन्दी के,
चक्षु में है सत्या के, वक्ष जाम्बवती के ।
भद्रा के भरण है, प्रीति है मित्रबिन्द्रा से ,
स्नेह है लक्ष्मणा के, गोपिन के शेष है ।        
गोपिन के मीत है, प्रीति है सत्यभामा के,
सहोदर है हलधर के, प्रवाह सुरसरि के ।
अनाथ के नाथ है, प्राणनाथ लक्ष्मी के,
स्वामी है रूक्मिणी के, ईश शेषनाग के ।
पितु है भद्र के, तात है सुभद्र के,
हृदय है सुभद्रा के, अरि वीरभद्र के ।
कमला है चरण में, कमलनयन शेष पर ,
नभ है नाभि में, दासी-सखा शीश पर ।
दिनकर के ओज है, सरोज है जल के ,
हुताशन है अनिल के, नभ नभचर के ।
गति है ग्रहों के, भाव है स्वभाव के,
युग है युगों के ये, योगीराज योग के ।
लयों के छन्द है, तार है सितार के,
ताल है मृदंग के, करताल कीर्तन के ।
मीरा के वीणा है, सुर है श्याम के ,
भाग है रहीम के, खान रसखान के ।
अरि है तिमिर के, बसंत है शिशिर के,
रीती है कुरीति के, ज्योति नयन के ।
ग्रन्थों के वेद है, वेदना है दीन के,
प्रचूर है अभाव के, मूल निर्मूल के ।
अकाल के काल है , भिज्ञ है अनभिज्ञ के,
अनादि है अनन्त के , ज्ञान प्रवीण के ।
रासों के रास है, श्रृंगार है रसों के,
गंधर्व है नृत्यों के, कुबेर धनराशि के ।
निष्कामी के काम है, प्रलोभ है लोभ के,
निशा है निशाचर के, अचर चराचर के ।
विष है हलाहल के, अरि है कलह के,
सौन्दर्य है रति के, उमंग देवकी के ।
अंग है अनंग के, तीर है निषंग के,
पंकज है पंक के, गरल भुजंग के ।
यश है कुयश के , स्वरूप है अंश के,
विघ्नहरण है गणेश के, शरण महेश के ।
ईश है दिनेश के, पूजते सुरेश है,
शिखर है विन्ध्य के, भजति दक्षेश है ।
शेष है धरित्री, शीश है ये शेष के,
रूप मगधीश के, चरण जगदीश के ।
उद्धोषक है युद्ध के, विदुर है नीति के,
गोपाल है जगत के, बैरि शिशुपाल के ।
प्राणियों के प्राण है ,नाश है विनाश के,
चक्र है ग्रहों के ये, प्रणाम नाथ चक्रधर  ।
बलि के है द्वारपाल, पालक है ध्रुव के ,
ऐसों रणछोंण को, प्रणाम नत शीश है ।

पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल


Saturday, May 23, 2020

निबन्ध-उपनाम की योग्यता


उपनाम की योग्यता

भारत देश एक विशाल देश है, जहां पर विभिन्न प्रकार की उपाधियां एवं उपनाम कुछ विशेष किस्म के व्यक्ति को ही जाती है । यह सम्पूर्ण उपाधियां उन्ही व्यक्तियों को दी जाती है जिसका उस सम्बन्धित पद से कोई भी सरोकार नही होता है । आप लोग राष्ट्रपिता, राष्ट्रीय चाचा आदि लोगों को जानते है जो कि यथार्थं में उन्हीं को दिया गया जो इनके योग्य थे परन्तु अत्यधिक मात्रा में इससे विपरीत भी इस तरह की संज्ञा प्रदान की गयी है ।
आइए अब वर्तमान परिदृश्य में बहुतायात मात्रा में होने वालें कुछ उपाधियों से हम आपको परिचित कराना चाहते है, जिनसे हमलोग प्रतिदिन कहीं न कहीं दिन में एकाध बार अवश्य मिल जाते है , जैसे हमारे गांव में एक नाम है विधायक परन्तु विधायक की बात तो बहुत दूर है, वह मेरे वार्ड का न ही सदस्य है और न ही बनने के काबिल है । इसी प्रकार हमारे एक बड़े भाई साहब का नाम है दरोगा जी, उनकी भी यही खुबी है कि आज तक दरोगा की बात तो बहुत दुर है होमगार्ड की भी परीक्षा नही दिए है । काबिलियत की बात की जाए तो चौकीदार भी बनने के योग्य नही है, लेकिन भाई अब गांव वालों का पता नही कौन सा प्यार है और उनके अन्दर ऐसी कौनी सी त्रिनेत्र की दृष्टि है, जिससे वो बचपन में ही बच्चों के योग्यता को पहचानते हुए उसे इन उत्कृष्ट उपाधियों से नवाज देते है और उस बच्चे का भविष्य उस दिन के बाद से कभी भी उस पद के योग्य नही बन पाता । उपनाम धारित ऐसे विचित्र महापुरूष जीवन भर उस अलंकृत नामकरण का बोझ अपने कन्धे पर ढोते रहते है और हम जैसे लोगों के द्वारा यथासम्भव शादियों, सामाजिक समारोहों एवं गोष्ठियों में उसी अलंकृत उपाधियों के द्वारा एवं उसी पद के अनुरूप उन्हे सम्मान भी दिया जाता है ।
          हम सभी के गांवों में दरोगा, विधायक, कलेक्टर, जज, डी.एम., नेता , विधायक, प्रधान नाम के व्यक्ति भी बहुतायात मात्रा में पाए जाते है जिनका कोई भी सम्बन्ध इस पद से नही होता है ।
          अब हम बात करते है पुलिस विभाग की तो इस विभाग की लीला तो अपरम्पार है । यहां पर बहुत ही कम लोग है जो कि अपने मूल पद के नाम से जाने जाते है । उनके सगे-सम्बन्धी एवं उनके क्षेत्रीय चापलूस गणों के द्वारा बिना किसी आदेश के ही उनका एक  से दो पदों की प्रोन्नति प्रदान कर दी जाती है । जैसे इस विभाग के चौकीदार को लोग होमगार्ड कहते है । होमगार्ड को लोग अपनी सेवा हेतु सिपाही जी के पद से नवाजते है और यथासम्भव इस पद के अनुसार ही सम्मान देते है, परन्तु उनके सामने । सिपाही जी की तो बात ही मत करिए अगर उन्हे गलती से भी किसी ने सिपाही जी बोल दिया तो सिपाही जी के गुस्से को शान्त करने हेतु उस बेचारें को उसकी अच्छी कीमत चुकानी पड़ती है । यह कीमत उस व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक योग्यता के मापदंड के क्रम में होता है ।
 सिपाही जी तो प्रायः दीवान जी के पदनाम से ही बुलाए जाते है । जब भी उन्हे इस उपनाम से पुकारा जाता है तो एक तरफ तो उनके मन में एक टीस उभर जाती है दीवान न बन पाने का, परन्तु दूसरे ही क्षण उनके अन्तर्मन से एक अकस्मात् ही मुस्कान उनके चेहरे पर झलकने लगती है , जो कि उन्हे बिना पद के ही अभी कुछ पल पहले प्राप्त हुआ था । जैसे ही किसी व्यक्ति नें उन्हे दारोगी जी के पदवी से अलंकृत करते हुए उनके चरण को अपने हाथों से स्पर्श किया तो उस व्यक्ति के काम होने की सफलता की सुनिश्चिता, बाकि लोगों से अत्यधिक हो जाती है । बस उसे इसके लिए प्रत्येक दो मिनट पर दरोगी जी(मूल पद सिपाही) के सामने हाथ जोड़कर एक ही बात दुहरानी पड़ती है कि बस आपकी कृपा है सब ,बाकि मेरी क्या औकात है ? हाथ जोड़ने और दरोगी जी के पैर पकड़ने का क्रम बस एक निश्चति अन्तराल में होना चाहिए । 
          इस प्रकार हमारे देश के समस्त सरकारी विभागों में एक पद होता है,  बड़े बाबू जी का । वैसे तो यह कोई राजपत्रित पद नही है और न ही इस पद का सरकारी कागजों में कहीं भी कोई उल्लेख मिलता है परन्तु लोगों द्वारा प्रदान की गयी इस पद की गरिमा अपने बड़े बाबू अर्थात् बड़े पिता जी से भी अत्यधिक होती है ,जो कि उन्हे अतिशय प्रिय भी होती है । किसी भी सरकारी पत्र को किसी भी स्तर के लेखक/रचयिता/निबन्धकार आदि द्वारा लिखी गयी हो परन्तु उस पत्र लेखन में व्याकरण की कमी से वो भले ही अनभिज्ञ हो लेकिन शब्दों के क्रम में क्या गलती है और उस पत्र के भाव को कैसे विपरीत किया जा सकता है, जिससे कि वह मूल-भाव से कोसो दूर चला जाए , उसका इन्हे बखुबी ज्ञान होता है ।
 जब तक इनकी कृपा दृष्टि आप पर नही होगी तब तक आप कोई भी पत्र पूर्णतया शुद्ध नही लिख सकते । आपका पत्र उसी वक्त पूर्णतया शुद्ध होगा जब आप इनके चरणों को स्पर्श करते हुए इन्हे इनके उपनाम से ससम्मान देने के बाद अपनी योग्यतानुसार और अपने काम के अनुरूप इनकी सेवा करेंगे । बड़े बाबू सभी सरकारी विभागों के शब्दों के जादूगर होते है । बड़े बाबू की गणित भले ही कमजोर हो लेकिन गणित में प्रतिशत निकालना बहुत अच्छा होता है । कितने पैसे में कितना प्रतिशत इनकों मिलेगा उसका कैल्कुलेशन तो ऐसा करते है, उस प्रकार से शुद्धतम् मान तो हमारे यहां के गणितज्ञ भी न निकाल पाए होंगे । आज मैं आपके एक सरकारी विभाग के बड़े बाबू जी का एक किस्सा बताता हुं –
एक दिन उन्हे एक ठेकेदार महोदय का पहले से तयशुदा रेट के अनुसार एक टेन्डर दिलवाने की बात हुयी । टेन्डर में प्राप्त पत्र में उन्होने लिखा –
        Approved
परन्तु जब कुछ समय बाद जब ठेकेदार महोदय पान खाकर आए तो बड़े बाबू जी को प्रणाम किया और अपने चेहरे पर विजयी मुस्कान लाते हुए बोले बाबू जी अब तो काम हो ही गया है । लाइए दीजिए कागजात अब चला जाए । बाबू जी को भी लगा कि लगता है कि ठेकेदार महोदय अभी शब्दों के साहित्य से ज्यादा चिर-परिचित नही है फिर क्या बाबू जी ने पत्र में लिखे  Not  Approved शब्द Approve आगे लिख दिया –
       Not  Approved      
इतना देखते ही तो ठेकेदार महोदय के पैर के नीचे से जमीन खिसक गयी । उनके अब तक के किए-कराए पर सब पानी फेर दिया था बाबू जी ने । क्युं कि शायद आपलोग नही जानते होंगे बड़े बाबू जी का शुद्ध पदनाम लिपिक संवर्ग होता है । इसलिए ये लोग लिपिकीय कार्य भले ही न करें लेकिन पत्रों के साथ लीपा-पोती करने के महारथी होते है ।
          घण्टों तक ठेकेदार महोदय के द्वारा विशेष अनुनय-विनय के बाद बाबू जी फिर से राजी हुए, टेण्डर पास करने के लिए लेकिन अब इतना समय नष्ट करने के फलस्वरूप ठेकेदार महोदय पर अब तक एक प्रतिशत की पेनाल्टी लग चुकी थी । बाबू जी ने उन्हे इस टेन्डर को पास कराने हेतु बताया कि अब इस फाइल को फिर से बनानी होगी । साहब के पास ले जाने पर साहब नाराज हो जाएगें उनको भी खुश करना पड़ेगा । सभी समस्याओं से अवगत कराते हुए ठेकेदार महोदय से एक सप्ताह का समय लिया और एक सप्ताह बाद एक प्रतिशत पेनाल्टी और चार डिब्बे मिठाई तथा अपनी पत्नी के लिए एक पलोटा साड़ी के साथ दुबारा बुलाया ।
          एक सप्ताह बाद नियत समय पर ठेकेदार महोदय आते ही बाबू जी को सर्वप्रथम साष्टांग प्रणाम किए और फिर उनके पूरे बटालियन को चाय-पानी कराने के बाद हिम्मत करते हुए फिर से अपने ठेके के बारे में पूछा- तो बाबू जी अपने चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए बोले कि जब मैं हुं तो क्युं परेशान हो । आज तक मैने कभी भी आपको परेशान किया है या आज तक कभी ऐसा हुआं है जब मैने आपको परेशान किया हो । इतना सुनकर तो ठेकेदार महोदय मन में अचम्भित हो गए लेकिन सामने से मुस्कुराते हुए बोले अरे कभी नही । आपके रहते मेरा काम न हो, ऐसा तो असम्भव है । फिर क्या बाबू जी वहीं पुरानी कागज को उनके सामने रखते हुए बोले , ये लिजिए आपका टेन्डर पास हो गया है , जिस पर उसी शब्द के आगे बस इतना ही लिखा था-
          Note: Approved
इस पत्र के जवाब को देखते ही ठेकेदार महोदय ने बाबू जी के काबिलियत का उसी दिन लोहा मान लिए । उस दिन के बाद से दुबारा उन्हे बाबू जी के साथ इस प्रकार की हरकत करने का ख्याल भी न मन में आया ।
          इसलिए हे चराचर जगत् के प्राणियों ! मेरा आपसे अनुरोध है कि इस प्रकार के किसी भी व्यक्ति से जिन्हें किसी भी प्रकार के उपनाम की संज्ञा प्रदान की गयी हो कृपया उनसे उचित दूरी बनाएं साथ ही उनके समीप जाने पर इस संज्ञा शब्द (उपनाम) का प्रचूर मात्रा में प्रयोग करते हुए उनके चरणों के धुलि को अपने मस्तक पर लगाएं । जिसके की जीवन में आपको किसी भी प्रकार की कोई समस्या न हो ............
                                                                 
 पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से  

प्रीत

      प्रीत तेरे रंग की रंगत में, कही रंग ना जाउं, तेरे साथ रहने की, कसमें ही खाउ, निज प्रेम से बांध लूं, अब तुम्हे मैं, मेरे ...