सन्यासी यह कविता आत्मबोध और वैराग्य के भाव को दर्शाती है। मेरी अन्य रचनाओं जैसे प्रेम कविता और भक्ति कविता में भी ऐसी आत्मिक अनुभूति की झलक मिलती है। साधक बनकर साधना वस ; जाते हो तुम तप-वन, पुत्र, पौत्र, मित्र, अर्द्घागिंनी छोड़ मोह सर्वस्व त्याग । ग्रहण करते पंच गुरू दीक्षा, करते स्वजन का पिंडदान, करके वेधव्य पुरूष्त्व प्रतीक को, अखंड ब्रह्मचर्य पालन करके, अपने ऊर्जां को संचित करते । छोड़ वस्त्र ; धारण कर पट-पीत पात, त्याग अन्न ; भक्षण करते फल-नीर-वात, शुष्क वदन, अभ्यंतर नयन । रमत भस्म है, मिलत दण्ड, मुंडित मूर्धा , रख जटाजूट, दृश्य कंकाल, ओजित कपाल, रूद्राक्ष पहन, श्मश्रु सघन, साथ कमंडलु, करते भिक्षाटन । यश-अपयश धन वैभव का , करते कोई लोभ नही, माय-जड़ता से विरक्त होकर, ईश्वर में ही तल्लीन रहें, अंतःमन का तिमिर मिटाते, ज्ञान-चक्षु की ओट हटाते, प्रतिपल सबको शीश नवाते, तब जाकर सन्यासी कहलाते । होते आसक्तिहीन, वैराग्यलीन, विचरण करते गिरि कानन-कानन, करते स्खलित ; द्वेष-भाव मन की, भूल सुध-बुध स...
बहुत सुंदर भक्तिमय रचना
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