Tuesday, May 26, 2020

कथा और कथानक


कथा और कथानक

कथा एवं कथानक दोनो ही शब्द संस्कृत के कथ धातु से बने हुए है । कथा का मतलब होता है महात्म्य या कोई कहानी लेकिन हमारे धर्म में कथा का सबसे प्रचलित रूप है किसी ईश्वरीय गाथा को पूर्ण मनोयोग एवं विधि-विधान के साथ सुनना । कथानक का अर्थ है किसी रचना की आदि से अंत तक की सब बातों का सामूहिक रूप । आइए आज हम इस पर विस्तृत रूप से चर्चा करते है।
          आज से कुछ समय पहले मेरे यहां भगवान श्री सत्यनारायण कथा का आयोजन हुआ । प्रायः यह देखा गया है कि कथा का आयोजन दिन के मध्य अर्थात् दोपहर के समय ही किया जाता है जिससे कि सभी व्यक्ति अपने कार्यों को पूर्ण करके यथा समय कथा को सुनने के लिए एकत्रित हो सकें और भगवान की कथा का रसास्वादन कर सकें । सभी व्यक्ति एकत्रित तो कथा सुनने के लिए होते है लेकिन उनकी चर्चा कथा से दूर हटकर कथानक का स्वरूप ले लेती है ।
          दोपहर के समय बारी-बारी से गांव की महिलाएं और प्रत्येक घर से व्यक्ति अब मेरे दरवाजे पर आने लगे थे कथा सुनने के लिए । एक घन्टे के अन्दर ही पूरा दरवाजा भर चुका था पुरूषो से तथा घर का आंगन सभी महिलाओं और बच्चों से जो कि आज आए हुए थे । दादी-दादा पैरों में रंग लाकर पूजा स्थल पर यजमान के स्थान पर बैठे हुए थे । महाराज जी का आसन अभी भी सुनसान सा पड़ा हुआ था । सबसे खास बात यह थी कि श्री सत्यनारायण भगवान, शालिग्राम जी , यजमान एवं गांव के सभी सम्मानित लोग कथा सुनने के लिए एकत्रित हो चुके   थे । जिनकी कथा (श्रीहरि विष्णु) सुननी थी और जिसे (यजमान) सुनना था , दोनों ही लोगों ने आमने-सामने अपना आसन ग्रहण कर लिया था परन्तु अभी तक जिसे कथा सुनानी थी मतलब हमारे पुरोहित जी उनका आगमन न हो पाया था ।
          कुछ समय इन्तजार करने के पश्चात् मुझे अवारा घोषित कर दिया गया कि अभी तक बैठ के यहां पर मुंह देख रहे हो सबका ,जाओं जल्दी से महराज जी को बुलाकर लाओं । मैं भी अन्तर्मन से कुढ़ते हुए उनको बुलाने के लिए उनके घर की तरफ निकल पड़ा । रास्ते में देखता हुँ तो महाराज जी खड़ाऊं पहने हुए अपने दाएं हाथ की कांख में एक लाल कपड़ें में पोथी को दबाएं हुए चले आ रहें थे। उनके मुख में मुखशुद्धि हेतु बढ़िया पान खाए हुए थे , जिसके लाल रंग की पीक उनके होठों से होते हुए सीधे नीचे की तरफ उनकी ठुड्डी की तरफ एक सरल रेखा में बह रही थी, जिसे वो हर दो मिन्ट पर साफ कर रहे थे । इतना में हम दोनो लोग दरवाजे पर पहुंच चुके थे । सभी लोगों ने एक स्वर में महराज को प्रणाम किया, जिसका महराज जी बिना रूके ही अपने हाथ को उठाकर सबको जय हो के घोष के साथ ही घर में प्रवेश करते है । सभी महिलाएं उनके चरण स्पर्श करती है और महराज जी निर्बाध रूप से सबको दीर्घायु भव आदि का आशीर्वाद देते हुए सीधे अपना आसन ग्रहण करते है । जैसे ही आसन ग्रहण करते है महाराज जी उसके बाद से ही 3-4 लोग बस उनके द्वारा दिए गए निर्देशों का अक्षरशः पालन करने में जुटे हुए होते है । कभी बोलते जल लाओं, कभी बोलते अक्षत लाओं, कभी वो माला-फूल को ढूंढते हुए बोलते कि इतनी देर में आए फिर भी आप लोग पूरी तरह से व्यवस्था न कर पाएं । मेरे दादा जी को देखते हुए बोलते है कि इतने दिन से सब आप कर रहे है लेकिन एक भी व्यवस्था ढंग से न किए हो । इतना सुनना बस था उसके बाद दो मेरे दादा जी मेरे घर के सभी व्यक्तियों को क्रमवार नामबद्ध तरीके से उनके कई पुश्तों को याद कर दिया । साक्षात् नारायण इस समय के साक्षी थे जब वो सभी को इस प्रकार का सर्वसुलभ आशीर्वाद प्रदान कर रहे थे । किसी तरह विधि-विधान से पूजा-अर्चन करने के उपरान्त कथा का प्रारम्भ हुआ । महाराज जी एक बार शंख बजाकर सत्यनारायण भगवान का कथा का प्रारम्भ करते हुए सभी महिलाओं से कथा सुनने का विशेष आग्रह करते है, जैसे कि उन्हे पहले से ही अनुमान था कि कोई भी कथा न सुन रहा है । इस प्रकार से कथा प्रारम्भ होती है ।
          कथा  प्रारम्भ होने के पश्चात पूर्णतया यह प्रयास किया जाता है कि यजमान और महाराज जी बीच में न बोले , बस इसी बात का लाभ उठाते हुए आंगन में बैठी हुयी सभी महिलाओं का कथानक प्रारम्भ होता है । एक प्रकार से उन्होने भी अपनी बातों का भी एक विजयी स्वर से उच्च कोलाहल युक्त वार्ता का शंखनाद कर दिया था ।
          आंगन में महिलाओं कई अलग-अलग मण्डली की तरह बैठी हुयी थी, जिसे देखकर यह प्रतीत हो रहा था कि जैसे किसी खेल का आयोजन किया गया हो और अलग-अलग देश के खिलाड़ी अपने-अपने समूह में बैठे हो । सासु जी लोगों का एक अलग समूह थी , जिसमें सिर्फ आज के नई बहुओं की चर्चाएं हो रही थी कि आजकल की बहुएं एकदम से निर्लज्ज और बेहा हो गयी । जब देखों अपने मन्सेधु(पति) से सबके सामने ही बात करती रहती है, एक पैसे का न शरम है औ न लिहाज । एक हमलोग थे कि ससुर की बात तो दूर चिन्टुआ के पापा भी आज तक मेरी मुंह सही से न देख पाएं । कही बाहर मिल जाए तो शायद पहचान भी न पाएं ।
          दूसरी तरफ नयी बहुओं का समूह थी , जिसमें सिर्फ सासु मां की बुराईयां चल रही थी । एक हमार माई हयीन वो त बस छोटकी पतोहुं(छोटी बहू) को ही मानती है , इसीलिए मैं तो अब उनकी बात ही न सुनती । जब सभी लोगों ने क्रमवार अपनी-अपनी सासु मां का विधिवत् सचित्र वर्णन करने के उपरान्त फिर साड़ियों का दौर चला , जिसमें सभी लोगों ने एक-दूसरे के साड़ियों की प्रशंसा की और बताया कि कौन सी साड़ी उनके मां ने , कौनी सी उनकी भाभी ने और कौन सी उनके भैया ने दी थी । एक लाचार व्यक्ति पति ही थी , जिसने आज तक जीवन में उन लोगों के लिए कुछ नही किया था । इस दुनिया का सबसे निकम्मा और अवारा व्यक्ति उनकी पति ही था तथा इस संसार का सबसे सभ्य, चरित्रवान व्यक्ति उनकी भाई तथा सबसे अच्छी महिला उनकी मां थी । कुछ अतिवृद्ध महिलाएं भी थी जो कि बस बहुओं के पल्लू को देख रही थी कौन सी और सर पर पल्लू रखी है और कौन नही । किस औरत का मुंह साड़ी के बाहर दिख रहा है या नही । शर्म-हया का कथा ही सुनाने में वो अलग व्यस्त थी ।
           कुछ गांव की ननदे भी आयी थी जो बस अपने भाभी से हंसी-ठिठोली में ही व्यस्त थी । एक लड़की बोलती है कि का हो भाभी देखत हई तोहार ध्यान भैया पर ही है, पूजा में तोहार मन नाही लागा ता । इतना सुनते ही भौजी ने भी पलटवार करते हुए बोली-अरे नाही दीदी वो तो हम देख रहे है कि आपके भैया हर दो मिनट पे आकर आपको ही देख रहे है । ऐसा क्या कर दी हो अपने भैया के साथ जो तुमको छोड़ ही न रहे है । जब तोहसे खाली पावई तब न देखई हमई । इसी प्रकार से उन सभी का आपस में हंसी मजाक चल रहा था ।
          बाहर दरवाजे पर सभी गणमान्य लोग बैठे हुए थे जो कि कथा सुनने के लिए आए थे लेकिन कथा तो सुन नही पा रहे थे लेकिन जब भी शंख की ध्वनि सुनाई दे जाए तो हाथ जोड़कर विनम्र भाव से एकाग्र मन के साथ प्रणाम करते । यह दृश्य भी बड़ा ही अलौकिक लगता था देखने में क्युंकि बाहर भी लोग कई समूहों में विभाजित थे , उनका विभाजन समसामयिक मुद्दों और अपने रूतबों को लेकर था । एक महाशय तो बता रहे थे कि कल थानेदार साहब ने एक गाड़ी पकड़ लिए थे और छोड़ ही न रहे थे फिर क्या सोनूवा आया और मुझे सारी बतायी । तुरन्त ही मैं थाने पर गया , मुझे देखते ही थानेदार साहब चलकर बाहर आए और चाय-पानी बैठाकर कराए , गाड़ी भी छोड़े । उन्होने तो बोला कि आपको आने की जरूरत क्या थी बस इसको एक बार बता देना था कि आपका छोटा भाई है । इसी बात पर एक दूसरे महाशय ने उनका कटाक्ष करते हुए बोला कि अरे उ थानेदरवा चोर है और तोहउ वैसई हय । बस इसी बात पर दोनों लोगों की कहा-सुनी बढ़ती गयी और हाथा-पायी की नौबत तक आ गयी । इतना होते देख गांव के लोगों ने किसी तरह अलग-अलग करके कुछ लोग दोनो लोगों को समझाने लगें । किसी तरह मामला शान्त  हुआ । 
          इतना  हो ही रहा था कि महराज जी बाहर निकले और बोले कि कथा समाप्त हो चुकी है , चलो प्रसाद बांट दो सबकों । सभी लोग कथानक में व्यस्त थे किसी को भी कथा का ध्यान ही न था महाराज जी को देखकर सबको याद आया कि घर के अन्दर कथा भी चल रही है । कुल मिलाकर उस दिन मुझे यह पता चला कि कथा के एकमात्र श्रोता पण्डित जी ही थे जिन्होने उसको आत्मसात् किया था क्युंकि मुझे लगता है कि उन्हे अब इसकी आदत पड़ चुकी थी । इस प्रकार कथा एवं कथानक दोनों ही कुछ देर में समाप्त हो गया ।   





5 comments:

  1. वाह!बहुत खूब!एकदम सही चित्र खींचा है आपने कथा और कथानक का ।

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    1. सादर नमस्कार,
      जो बचपन में और आज भी अपने गांव में देखता हुं वही लिखा है । आपने अपना समय दिया उसके लिए धन्यवाद ।

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  2. बहुत सटीक वर्णन किया है महाराज जी आपने कथा और कथानक का

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