ॐ कृष्ण कृष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे। रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे ।।
श्रीकृष्ण स्तुति
कान्हा के मग में, मीरा मगन हैं ।
केशव के नख में, गगन ये नगण है ।
गोपियों के रंग में, माधव रगन है ।
देखि ये मरम उधौ, हृदय नमन है ।
देवकी
के लाल है , काल है कंस के,
बाल
है यशोदा के, लाल नन्द नन्द के ।
ब्रज
के रज है, धुलि है मग के,
चिह्न
है कान्हा के, पग है चलन के ।
ग्वालन
के मोहन है, वट है कानन के,
चोर
है माखन के , नयन चतुरानन के ।
श्रीदामा
के साथी है, साथ है सुदामा के,
मित्र
है मधुमंगल के, पितृ प्रतिभानु के ।
संगी
है विशाल के, मनमीत है रसाल के,
बाहु
है सुबाहु के, बुभुक्षु भोज-भोज के ।
संदीपनी
के शिष्य है, प्रियतम है राधा के ,
सखा
है अर्जुने के , गोप ग्वाल संग के ।
शरण
है कमला के, नीर है कालिन्दी के,
चक्षु
में है सत्या के, वक्ष जाम्बवती के ।
भद्रा
के भरण है, प्रीति है मित्रबिन्द्रा से ,
स्नेह है लक्ष्मणा के, गोपिन के शेष है ।
गोपिन
के मीत है, प्रीति है सत्यभामा के,
सहोदर
है हलधर के, प्रवाह सुरसरि के ।
अनाथ
के नाथ है, प्राणनाथ लक्ष्मी के,
स्वामी
है रूक्मिणी के, ईश शेषनाग के ।
पितु
है भद्र के, तात है सुभद्र के,
हृदय
है सुभद्रा के, अरि वीरभद्र के ।
कमला
है चरण में, कमलनयन शेष पर ,
नभ
है नाभि में, दासी-सखा शीश पर ।
दिनकर
के ओज है, सरोज है जल के ,
हुताशन
है अनिल के, नभ नभचर के ।
गति
है ग्रहों के, भाव है स्वभाव के,
युग
है युगों के ये, योगीराज योग के ।
लयों
के छन्द है, तार है सितार के,
ताल
है मृदंग के, करताल कीर्तन के ।
मीरा
के वीणा है, सुर है श्याम के ,
भाग
है रहीम के, खान रसखान के ।
अरि
है तिमिर के, बसंत है शिशिर के,
रीती
है कुरीति के, ज्योति नयन के ।
ग्रन्थों
के वेद है, वेदना है दीन के,
प्रचूर
है अभाव के, मूल निर्मूल के ।
अकाल
के काल है , भिज्ञ है अनभिज्ञ के,
अनादि
है अनन्त के , ज्ञान प्रवीण के ।
रासों
के रास है, श्रृंगार है रसों के,
गंधर्व
है नृत्यों के, कुबेर धनराशि के ।
निष्कामी
के काम है, प्रलोभ है लोभ के,
निशा
है निशाचर के, अचर चराचर के ।
विष
है हलाहल के, अरि है कलह के,
सौन्दर्य
है रति के, उमंग देवकी के ।
अंग
है अनंग के, तीर है निषंग के,
पंकज
है पंक के, गरल भुजंग के ।
यश
है कुयश के , स्वरूप है अंश के,
विघ्नहरण
है गणेश के, शरण महेश के ।
ईश
है दिनेश के, पूजते सुरेश है,
शिखर
है विन्ध्य के, भजति दक्षेश है ।
शेष
है धरित्री, शीश है ये शेष के,
रूप
मगधीश के,
चरण जगदीश के ।
उद्धोषक
है युद्ध के, विदुर है नीति के,
गोपाल
है जगत के, बैरि शिशुपाल के ।
प्राणियों
के प्राण है ,नाश है विनाश के,
चक्र
है ग्रहों के ये, प्रणाम नाथ चक्रधर ।
बलि
के है द्वारपाल, पालक है ध्रुव के ,
ऐसों
रणछोंण को, प्रणाम नत शीश है ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल
जय श्रीकृष्ण🙏
ReplyDeleteराकेश
जय श्री कृष्णा दीगरा
Deleteहरे हरे कृष्णा
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा !
Deleteअद्भुत रचना
ReplyDeleteसादर प्रणाम । जय श्री कृष्णा ।
Deleteअति सुंदर
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा !
Deleteबहुत सुंदर भाई। जय श्री कृष्णा
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा भाई ।
Deleteअति सुंदर प्रस्तुति जय श्री कृष्णा
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
DeleteJai ho
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteजय श्री कृष्ण
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
DeleteWow... Bahut sundar kavita...
ReplyDeleteजय श्री कृष्णा
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