कविता – मजदूर (Labour Poem)
मैला सा कुर्ता,
फटी हुयी धोती,
अधनंगा सा बदन,
चंगा सा मन,
कांधे पर गमछा,
मुख में सुपाड़ी,
बगल में तगाड़ी,
शीश पर अपने,
पुरखों की पगड़ी,
सलीके से बांधकर,
आया था शहर ।
एक संजीदा सा-
ख्वाब बुनकर,
अपने मुन्हें के खातिर,
एक छोटे से घरौंदे,
की आस लेकर,
शहर की हर शाख पर,
सहेजते हुए तिनका-तिनका,
रईशों के बाजार में,
बनाने एक घोंसला,
एक गांव का मजदूर,
जमीर को सहेजकर,
आया था शहर ।
माता को अपने ,
घर में ही छोड़कर,
नवांकुर कपोल से ,
बच्चों के हृदय को,
कच्चे बर्तन सा तोड़कर,
भूख के कारण,
कुपोषित हुयी पत्नी,
को बीच मंझधार में,
रिश्तों की डोर से,
किनारे पर बांधकर,
आया था शहर ।
साल में एक बार,
जब आता मैं शहर,
अपने मेहनत-मजदूरी से,
बसाता नया शहर,
बसते ही इस आशियां में,
आते सब रईंश-जन,
और हर बार की तरह,
अपने पैसों के मद में,
ये सफेद-पोश कातिल,
उजाड़ मेरा आशियां,
मेरी जिन्दगी से बेखबर
करते थे मुझे बेघर,
करते थे मुझे बेघर,
आया था शहर ।
आसमां को चुमती,
ये शहरी इमारते,
इनके ही नींव में ,
मेरे माथे की सिलवटें,
कई रातों की करवटें ,
मेरे बच्चों के खिलौने,
मेरे बाबू की यादें,
मेरी पत्नी की रातें,
मेरी दर्द भरी आहे,
मेरे सपनों की बातें,
मेरे सपनों की बातें,
सब दफन हो गयी थी,
इन सुन्दर मीनारों में,
फिर से उन्ही को ढुंढ़ने,
आया मैं शहर ।
अपने मजबुत इरादों की,
एक नाव बना,
अपने परिवार के लिए,
प्रारंभ किया मैंने,
एक नया सफर,
तपती धूप में,
भूखे पेट, नंगे पैर,
कांपते होंठ थरथराती शरीर से,
शहर से गांव के बीच की ,
मीलों दूरियों कों रौदकर,
पथरीले रास्तों में,
अपने फटे हुए पदचापों के
रक्त-रंजित छाप को छोड़कर,
रक्त-रंजित छाप को छोड़कर,
बेगानों के शहर से
अपने उसी गांव में,
अपनों की छांव में,
आज मैं लौट आया ।
अपने उसी गांव में,
अपनों की छांव में,
आज मैं लौट आया ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से
चित्रः गुगल साभार ।
वर्तमान समय को व्यक्त करती ये मार्मिक कविता। बहुत सुंदर��
ReplyDeleteसादर धन्यवाद मित्र । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मजदूर/श्रमिक वर्ग के दिल की बात जानने की कोशिस है इस कविता में ।
Deleteसादर धन्यवाद
DeleteBhai kaha se sochte hain aap🤔
ReplyDeleteSuper👌
Thanks bhai
DeleteSunder
ReplyDeleteThanks
DeleteZabardast rachna vastavikta ko pradarshit karne vala 👍👍👍
ReplyDeleteThaku bhai
DeleteAti sunder
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteThanku
DeleteReally ek labour ki pareshaniyo ko koi nhi samajh sakta...badi badi makane bana kar wo bichare khud chote se ghar me rehta h....aapne is choti si poem me labourers ki saari ptoblems bata di .....Amazing 😊
ReplyDeleteअपना अमूल्य समय देने के लिए धन्यवाद
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