भारत के वीर सपुत (Indian army)
सरहद की चोटी पर,
पाषाण हृदय सा खड़ा रहें,
अतुलित शौर्य से भरे हुए,
बन कर अभेद्य दीवाल,
सीमा पर वह डटा रहें,
अभी-अभी तो नई-नवेली;
दुल्हन घर में आयी थी,
थोड़ा सा उसे सताया था,
कुछ ही पल साथ बिताया था,
उसके घुंघरालों बालों में,
बिंदिया भी उलझी ही थी,
उसके नाकों के नथुनी की,
कानों से डोर बंधी ही थी,
खन-खन करते हाथों के कंगन,
प्रतिपल गीत सुनाते मंगल,
उसके पायल की छन-छन,
बस कानों तक ही पहुंचे थे,
उसके पांवों का लाल रंग,
अब तक चमकीला ही था,
अपने प्रियतम के घूंघट को,
बेपरदा न कर पाया था,
चांद सलोनी मुखड़ें को,
दिल भर भी देख न पाया था,
उसके अधरों के चुम्बन का ,
दाग नही छुट पाया था,
गाढ़ी मेंहदी का सुर्ख रंग,
हल्का न कर पाया था,
जब तक मैं आलिंगन करता,
तब तक में तो समय बीत गया ।
वृद्ध पिता के कंधों का ,
बोझ उतारने आया था,
पर अपनी ही ध्रुवस्वामिनी को,
कांध उन्ही के सौंप आया ।
माई रोती मुझको देख-देखकर
निज आंचल में भर लेती वो,
बीसो चुम्बन मस्तक पर देकर,
विकल नयन से रोती वो,
कुछ कहती, कुछ सुनती,
फिर सुबक-सुबक कर रोने लगती,
मेरे लल्ला कब आएगा तु,
लगा हृदय से, अरू भींग नयन से ,
बस यही बात रटती रहती ।
उस भोली मासुम सी लड़की के,
दिल में एक उम्मीद भरी थी,
उसके कजरारे नैना में,
सावन-भादों के नीर भरें थे,
उसके जाने की चिन्ता में,
कम्पित-हृदय की गति बढ़ गयी,
चक्कर खा कर वहीं गिर गयी ।
सबकुछ वैसे ही छोड़-छाड़ कर,
पर्वत और पहाड़ लांघ कर,
दो दिन के ही प्रेम-मिलन में ,
एक मुन्हे की उम्मीद पालकर,
सरहद पर वह लौट आया ।
घर वालों का साथ छोड़कर,
पुनःमिलन की आस संजोकर,
पत्नी को आलिंगन कर,
बाबा के निज गले लिपट कर,
माता के अपने चरण चुम-कर,
मातृभूमि के सेवा हेतु,
सरहद पर वह लौट आया ।
खड़ा अटल सा वह हर पल;
सदृश पाषाण हृदय बनकर,
मास मई की तपती गर्मी,
या हो शीत ऋंतु की शीतल सर्दी,
या हो सावन की घनघोर वृष्टि
या दुश्मन की हो कुटिल दृष्टि,
बारह मास चौबीसों घण्टे,
खड़ा रहा सरहद पर वह ।
सीमा का था भीष्म पितामह,
अडिग, अटल निष्काम सा वह,
मृत्यु से न भय था उसकों,
जैसे साक्षात विधाता वह ।
दुश्मन का भी बज्र प्रहार,
टकराती जब भारत के वीरों से,
तो कामदेव के पुष्प नयन से,
गुड़हल का फुल चढ़ाती वो,
अम्बर से भी उंचा,
वीरों का शौर्य का हमारे,
काली घटा की घनघोर छटा भी,
आकर उसकों निहारें,
अम्बुद अम्बर अनिल अदिती,
पैर पकड़कर पौलि पखारे,
गिरिराज हिमालय का शिखर बिन्दु,
होता नतमस्तक जिनके तीरे ।
भारत मां की छाती पर,
कुटिल दृष्टि भी जहां पड़ी,
नरमुंडो की उनकी माला से,
धरती माता भरी पड़ी,
उनके ही कटे हुए हाथों से,
तिलक लगा कर रूधिर पीया,
उनके हृदय विदारक चीखों से,
अपने गायन को प्रारम्भ किया,
गर्जन सुनकर वीरों का अपने,
नटराज स्वयं भी नृत्य किए ।
रौद्र हुआं वीरों का स्वरूप,
झंकृत हो गया मेघ-गगन,
काटों मारों भागों जैसी आवाजों से,
उनके भीषण चिग्घाड़ों से,
अंगविहीन करते शत्रु को,
कांप गयी यह धरा हो आहत,
शत्रुदल को फिर भी न राहत,
अपने धड़ से वह शीश मिलन,
अन्तिम ही हो जाता था,
जो गलती से भी,
सन्मुख वीरों के आता था ।
देवों के भी श्वास रूक गए,
स्वयं ही आकर हाथ पकड़ गए,
ऐसे वीर सपूतों को,
नत शीश अखिलेश प्रणाम करें,
उनकें चरणों की धुली से,
अपने मस्तक का मान करें ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से
Great sat sat naman veer sapooton ko
ReplyDeletethanku bhai
Deleteसादर प्रणाम अखिलेश जी
ReplyDelete---------आपकी कविता का अध्ययन कर उन वीर सपूत के देश के लिये दिये गये बलिदान को याद कर आख आसुओ से भर आयी।
धन्यवाद
सादर प्रणाम बड़े भाई ,
Deleteआप अपना अमूल्य समय देकर मेरी कविताओं को पढ़ रहे है तथा साथ में ही उचित मार्गदर्शन भी कर रहे है । आपका साभार है ।
Nice
ReplyDeleteधन्यवाद ।
DeleteBahut sunder maharaj ji
ReplyDeleteकविता पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए धन्यवाद मित्र
Deleteअलौकिक रचना
ReplyDeleteसादर धन्यवाद मित्र ।
Deleteबहुत ही अविश्वनीय अद्भुत कविता आपने लिखा
ReplyDeleteसादर धन्यवाद ।
Deleteदिल को छू लेने वाले शब्दों का संयोजन।
ReplyDeleteEk sainik ki kahani apke jubani
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