एक पत्नी का सन्यासी से अन्तःद्वन्द्व
एक स्त्री का सन्यासी से संवाद-
अपने दायित्वों से भागकर,
परमपिता के कारण ;
अपने ही तात को त्याग कर,
जगत जननी के मोह में:
अपनी ही मां को छोड़कर,
सबके दिलों को तोड़कर,
सारे सुखों को भोग कर,
स्वर्ग के लोभ में,
अपनी मेनका को छोड़कर,
अपनी ही भगिनी को,
रोता हुआ छोड़कर,
विचरण करते जंगल-जंगल,
हे परमपिता परमेश्वर
!
क्या यही त्याग है ?
क्या यही वैराग्य है ?
या अभी भी ज्ञान का अभाव है ?
जब भी इनको होता है आत्म ज्ञान;
स्वांग रचाते क्षम्य-हृदय का,
क्या संकुचित है इतना मन,
जो जीते जी पहनाया;
मुझको वैधव्य वस्त्र,
कर्तव्य मार्ग को छोड़ भाग,
तुम सार ग्रहण करते जीवन का,
ऐसी दुर्गति करने वाले को,
क्या सच में मिलती है वैकुण्ठ गति
जिसको भोग में इतनी विफलता,
क्यो उसको, योग में होगी सुलभता ।
आत्मा ! ये
तो अमर है ।
तो क्या वैराग्य में इसको नश्वर बनाते,
या इस नश्वर शरीर को अमर बनाते,
या इस चंचल मन को एकाग्र करते ,
पर इसके लिए वैराग्य क्यो ?
आत्मा नश्वर हो नही सकती,
नश्वर शरीर अमर हो नही सकता,
बस इस मन को ही तो साधना है,
इसलिए हे साधू !
अपने दायित्वों को छोड़कर,
अपनो से ही मुंह मोड़कर,
जंगल मत भागों,
साधना से मन को साधो ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से
Wah bde Bhai
ReplyDeleteNice lines
thanku bhai
DeleteJai ho
ReplyDeleteSuper👌
बस आपका स्नेह ऐसे ही मिलता रहे ।
DeleteGood bhai. But sachche vairagya k liye moh maya ko tyagna to padega hi.
ReplyDeleteye ek patni ke vihar h mitra jise app jite ji vidhwa ka jiwan vyatit krna padta h ye uski vedana h. iske alawa maine ek rachna sanyasi likhi h iske liye ,
Deletebs dost app aise hi margdarshan krte rahiye, aapane sabse jyada madad kiye ho,
DeleteNice line keep it ahead
ReplyDeleteधन्यवाद बड़े भाई ।
DeleteBahut Badhia maharaj je
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसही लिखा महाराज, गृहस्थ के रहकर, अपने कर्तव्यों से बिमुख न होके, जो जीवन के मूल्यों को सार्थक करता है, सन्यासी वही है।
ReplyDeleteसबकी अपनी संवेदनए और आनन्द है सन्यासी का अपना और गृहस्थ का अपना बशर्तें आप अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन के पश्चात् सन्यास का मार्ग अपनाए ।
DeleteBahut sunder
ReplyDeleteAlot of thanks for reading this post .
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