कोरोना महामारी या प्रकृति की बेबसी
भीड़ से भरी हुयी,
ये सुंदर सी सड़के,
द्रुति गति से अपने स्थानों को
बिना विलंब के भागते ये लोग,
लाइटों की जगमगाहटे,
शोर-गुल की आवाजें,
आवागमन से भरा हुआ,
कभी था यह उन्नत बाजार ।
बड़ी-बड़ी ये इमारतें,
लम्बी-चौड़ी ये फैक्ट्रीयां,
अत्यधिक विकास की आंधी में,
अपने दूषित धुएँ से,
जीना कर दी थी दूभर ।
असीमित प्यास से भरा था,
न अपनों के पास था,
न ही कोई खास था,
औ'
न ही कोई आसपास था ।
नष्ट कर दिए सब बाग-बगीचे,
बना लिए खेत औ खलिहान,
सिमट गयी सब पावन नदियां,
बना लिए घर और मकान ।
प्रकृति के सुकुमार पुत्र,
वट, पीपल और नीम,
उनको भी तुमने काट दिया,
खण्ड खण्ड में बांट कर,
आपस में ही बांट लिया ।
अरहर आलू आम अनार,
अंजीर
अखरोट अमरूद
अडूसा,
अन्नास अमरूद अर्जुन अशोक,
अंगुर अजवायन अमलताश,
बेर बास बरगद बबुल,
औ' बड़हर बिल्व ब्राह्मी बेंत,
बजरी बैंगन बादाम बाजड़ा,
बूटी-बरगद औ' बाज बहेड़ा,
सेब सिरस सरसों सागौन,
सेम सुपारी साल संतरा,
शीशम शलजम शहतुत शतावर,
शकरकंद औ' साखु,
कटहल कैथ काजू कचनार,
कदंब कंकर कटुक करेला,
कमल
कपास करंज करमकल्ला,
कालीमिर्च औ'
केसर केला
पीपल पाकड़ प्लाश पपीता,
पिप्पली प्राजक्ता पथरचटा,
परवल पसली पटरी पटसन,
पद्मा पामा पुत्रजीविका,
महुआ मेथी मदर मखाना,
मकरी मोहरू मोठ मूंगफली,
नीबूं नीम नारियल नील,
औ' नामचमेली नागफनी,
हरें-भरें सबके बागों को;
उजाड़ दिया है तुने,
गुड़हल गुलाब गुग्गुल गुलधावी,
गोखरू गिलोय गाजर गुलमोहर,
लगा लिया घर के कोने ।
नालों में तब्दील हो गयी,
धरा की सब पावन नदियां,
बचा न कोई आज भगीरथ,
जो लौटा दे;
उनकी अविरल धारा ।
अंधा-धुंध भाग दौड़,
उपभोक्तावादी विचार,
जी भर कर दोहन किया है तुने,
प्रकृति हुयी लाचार ।
प्राण-वायु को भी दूषित करके,
भर लेता है अपने कोठी में,
समय-समय पर इसे बेचता,
इतना हो गया है
! तु कलुषित !
समय परिवर्तित हुआ,
क्षण में सब बदल गया,
संसार की सभी;
सड़के सुनसान हुयी,
गलियां वीरान हुयी,
मनुष्य हुआ कैदखाने में
जानवर आज उन्मुक्त हुआ ।
इंसानों का आवास,
पशुओं का रनिवास बना,
शाम-सुबह वे घर-घर जाते,
इंसानों की गिनती करते,
और पूछते हे मानुष !
तुने ये क्या कर डाला ।
तुमको थोड़ा सा क्या छुट मिली,
खुद को सर्वस्व समझ बैठे,
हे मुढ़ मनुज तुनें अब तक,
मुझको बहुत निचोड़ा,
अपनी क्रीड़ा के खातिर ,
मुझको दे दी इतनी पीड़ा,
मेरे क्रोध के भंजन का ,
शिकार बनेंगे सभी मनुष्य,
जीवित होंगे मेरे बच्चें,
ये नदियां फिर से आज बहेंगी,
ये बादल आज पुनः बरसेंगे,
अपने राहों के पत्थर को,
ये खुद समेटती जायेंगी,
नही सहुंगी मैं अब,
सब-कुछ विनष्ट कर डालुंगी,
रोक सके तो रोक,
या भोग सके तो भोग ।
कितना चतुर है तु ! हे
प्राणी ।
मेरे ही कुपित अवस्था का,
महामारी नाम दिया तुने ,
अपने रोने के नाटक को ,
कोरोना नाम दिया तुने ।
पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से
Very good
ReplyDeleteअति उत्तम भाई जी
ReplyDeleteधन्यवाद मेरे गुरूभाई । आप प्रतिपल ऐसे ही उत्साहवर्धन करते रहें ।
DeleteJabardast 🙏🙏
ReplyDeletethanks
DeleteKamya Mishra outstanding superb👌👌
ReplyDeletealot of thanks for giving ur honey time
ReplyDeleteSuperb🌟
ReplyDeletethanks
Deleteप्रकृति का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है आपने
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
ReplyDeletebahut sundar frnd
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