शीर्षक- अर्द्धांगिनी
प्रातः बेला में वो उठती है,
चुल्हा-चौका घर का करती,
मास, दिवस वह स्वयं नहाती,
घर के मन्दिर में दीप जलाती,
शयन-कक्ष के शय्या पर ही,
निशदिन तुमको वह पान कराती,
मिलन-हृदय से आलिंगन करती,
तब जाकर वह तुम्हे जगाती,
ऐसी होती अर्द्धांगिनी
है ।
साफ तौलिया टेबल पर रखकर,
नयन-क्षीर से पानी भरती,
नाजुक हाथों से मालिश करती,
भाव सींचती आंखों से,
तब जाकर तुम सोकर उठते,
सुन बर्तन की आवाजों से,
नियत समय पर भोजन देती,
रहती तुममें अनुरक्त सदा,
कष्ट तुम्हारा सदैव पूछती,
अपनी गलती स्वयं कोसती ,
ऐसी होती अर्द्धांगिनी है ।
दग्ध हृदय को शीतल करती,
प्रतिपल स्नेह तुम्हे वह करती,
अपने मन के आंसू को वह,
निज कम्प-हृदय में ही संचित कर लेती,
कितना भी कष्ट हृदय में हो,
पर प्रत्यक्ष न आने देती वह,
प्रतिक्षण क्रोध तुम्हारा सहती,
किंचित विरोध ना करती वह,
अवरोध पनप ना पाए जीवन में,
प्रतिपल वह मुस्काती है,
कुल का चिराग देती वो तुमको,
फिर भी श्रेय ना लेती है,
स्वच्छन्द गगन के भांति पतंगा,
घर में ही विचरण करती वह,
अर्द्धांगिनी ऐसी होती वह ।
रहती वो अर्द्धांगिनी है,
व्यवहार सदा सेवक जैसा,
सात-वचन, सोलह- श्रंगार,
मन में कोई न रहे विकार,
पति-परमेश्वर का ही जाप करें,
पूंजे तुमको बारम्बार ।
झूठे गुमान के चक्कर में,
फिर भी तुम इठलाते हो,
बात-बात पर जब देखों,
पैसे की ही बात सुनाते,
अधिकार न तुम उसको देते,
बस भोग्या-वस्तु समझते हो,
इतना अन्याय सहन करने का ,
साहस भी अर्द्धांगिनी में है,
सह लेती सब संतापों को,
हृदय-विदीर्ण आघातों को,
फिर भी वह सर्वस्व लुटाती,
प्रतिदिन तुमको शीश नवाती,
मातु-पिता, भाई सबको;
वह त्याग करें तुम पर,
पर तुम बोझ समझते;
उसको जीवनभर,
शर्म करों हे पुरूषों,
वो भी एक सिंहनी है,
सम्मान करों उनका भी,
वो भी तो अर्द्धांगिनी है ।
- पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल के कलम से
Wow nice poem and nice write.
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
DeleteThanku
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteThanks
DeleteBhai ye sabse best h...😍
ReplyDelete👌Super
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