Tuesday, May 12, 2020

माँ

माँ


                  
                          माँ वंदना

माँ के चरणों की धुलि में, नत शीश झुकाते है दिनकर,
वंदन करते हम सब प्रतिपल, आशीष ग्रहण करते करूणाकर ।

शंकर का भी त्रिशुल , जिन चरणों में बरसाएं फुल,
मातु हृदय ही है , जहां मिट जाए सब शुल ।


                             माँ
एक हाथ से भोजन कराती, दूसरे से जल पिलाती,
मुंह पोछती निज आंचल से, भर-पेट वो मुझको खिलाती ।
चुमती वो माथें को, गोंद में अपने सुलाती ,
दुध वो मुझको पिलाती, उसकी तभी छाती जुड़ाती ।
आंचल ही वस्त्र मेरा, उसी में होता सबेरा,
लिपटे बिना न नींद आती, मेरी नींद का रहती बसेरा ।
पति प्रेम से भी अधिक था मैं, मैं पति प्रेम की निशानी,
प्रेम वो मुझसे ही करती, पति प्रेम थी कहानी ।
सानिध्य में वो अपने , मुझको डांटती फटकारती,
पर अश्रु देख मेरे, जी भर के वो दुलारती ।
कण्ठ में मेरे, आवाज थी उसी की,
नयन में मेरे , प्रतिबिम्ब थी उसी की ।
हैं विज्ञान ये प्रकृति की, जो विज्ञान से परे है,
मेरे रक्त की ये कोशिका, मात्र मातृ-दुग्ध से बने है ।
लाल हुं मैं उनका, मेरे मस्तक की लालिमा वों,
प्राण हुं मैं उनका, मेरे अधर की मुस्कान वों ।
आंख के ही सामने, मुझे बार-बार ढुंढती,
साथ में खिलाती, साथ ही सुलाती ।
अभिन्न अंग था मैं, रहता भी संग मैं,
जीवन के रंग का , उमड़ता उमंग मैं ।
डर में वो जीती थी, आज डर भाग जाती है,
बालक की प्रीति में, जब सामने वो आती है ।
स्वप्न में भी मैं था, याद में भी मैं था,
साथ में भी मैं था, भाव में भी मैं था ।
आज मैं वयस्क हुंआ, वृद्ध हो गयी है माँ,
चैन से मैं सो रहा , पर जागती है आज भी माँ ।
प्रेम में मैं पड़ गया , पर प्रेम में वो आज भी,
गांव की गलियों में, मुझको ही निहारती ।
बात-बात में वो, बस एक बात पूछती ,
लल्ला को मेरे अब, क्या याद नही आती ।
                            पं0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से 

माँ

20 comments:

  1. माँ दुनिया की अनमोल रतन

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    1. आपका धन्यवाद कविता पढ़ने एवं मुझे इतने महान उपाधि से अलंकृत करने के लिए ।

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  4. Replies
    1. सादर धन्यवादी बड़े भ्राता

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  5. आज मैं वयस्क हुंआ, वृद्ध हो गयी है माँ,
    चैन से मैं सो रहा , पर जागती है आज भी माँ ।
    ये लाइन मेरे दिल को छू गई मेंरे दोस्त। इसी तरह की पंक्ति आपके मनोभाव से उद्घृत होती रहे ।

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