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Showing posts from April, 2020

आदि शंकराचार्य

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आदि शंकराचार्य का संक्षिप्त परिचय सनातन धर्म/वैदिक धर्म   के इतिहास में आचार्य शंकर का प्रादुर्भाव हिन्दु धर्म के लिए एक नवीन युग का प्रारम्भ है । हमारी पुरानी परंपराओं के प्रतिष्ठाता आचार्य शंकर राष्ट्रीय एकता के प्रतीक/अखंड भारत की स्थापना में सांप्रदायिक/सामाजिक सद्भाव के सुदृढ़ सेतु हैं। आज के कुत्सित अशांत संपूर्ण जगद् में सभी प्राणियों को शांति और सौहार्द/राष्ट्रीय चेतना/विश्व बंधुत्व एवं वैदिक संस्कृति का पावन संदेश देने के लिए परम पुज्य श्रीमद् आद्य शंकराचार्य का अविर्भाव 2593 कल्पद्ध 509 पूर्व नंदन संवत् , शुभ ग्रहो युक्त वैशाख शुक्ल पंचमी मध्याह्न में केरल स्थित कालड़ी ग्राम में ब्राह्मण दंपति के यहाँ हुआ था । इनके पिता का नाम शिवगुरू तथा माता का नाम आर्यम्बा था । यह निर्विवाद है कि आदि जगतगुरु शंकराचार्य भूतमानव भूतेष आशुतोष महेश्वर भगवान शंकर के अवतार थे । आचार्य शंकर ने अपने धर्मोद्धार संबंधी कार्यों को अक्षुण्ण करने हेतु भारत के अति सुप्रसिद्ध धर्मों में चार पीठों(मठों) की स्थापना की । पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्ध्दन पीठ , उत्तर में हिमालय बदरिका आश्रम म...

बीमारी

बीमारी गांव क याद सताव ता, भागि-भागि सब आव ता, बिना बात क बाबू से- झगड़ा कइ के एक दिन, मेहर लई के भाग रहेन, परदेसवई में कमात रहेन, पिच्चा बर्ग खात रहेन, औ खेत कियारी भुल गयेन । साल भरे क दिन बीत गवा, पर कभउ न एकउ फोन केहेन, बिगड़ल तबियतवा बाबू जी क, तबहुं त नाही याद करेन । गईल नौकरी, भईल बीमारी, तरस गएन बिन खाना- पानी, अब अईसन भीषण लाचारी में, याद आवैं महतारी क ।                          प0 अखिलेश कुमार शुक्ल की कलम से

एक सन्यासी – जीवन दर्शन पर कविता | Hindi Poem by Akhilesh Kumar Shukla

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सन्यासी यह कविता आत्मबोध और वैराग्य के भाव को दर्शाती है। मेरी अन्य रचनाओं जैसे प्रेम कविता और भक्ति कविता में भी ऐसी आत्मिक अनुभूति की झलक मिलती है। साधक बनकर साधना वस ; जाते हो तुम तप-वन, पुत्र, पौत्र, मित्र, अर्द्घागिंनी छोड़ मोह सर्वस्व त्याग । ग्रहण करते पंच गुरू दीक्षा, करते स्वजन का पिंडदान, करके वेधव्य पुरूष्त्व प्रतीक को, अखंड ब्रह्मचर्य पालन करके, अपने ऊर्जां को संचित करते । छोड़ वस्त्र ; धारण कर पट-पीत पात, त्याग अन्न ; भक्षण करते फल-नीर-वात, शुष्क वदन, अभ्यंतर नयन । रमत भस्म है, मिलत दण्ड, मुंडित मूर्धा , रख जटाजूट, दृश्य कंकाल, ओजित कपाल, रूद्राक्ष पहन, श्मश्रु सघन, साथ कमंडलु, करते भिक्षाटन । यश-अपयश धन वैभव का , करते कोई लोभ नही, माय-जड़ता से विरक्त होकर, ईश्वर में ही तल्लीन रहें, अंतःमन का तिमिर मिटाते, ज्ञान-चक्षु की ओट हटाते, प्रतिपल सबको शीश नवाते, तब जाकर सन्यासी कहलाते । होते आसक्तिहीन, वैराग्यलीन, विचरण करते गिरि कानन-कानन, करते स्खलित ; द्वेष-भाव मन की, भूल सुध-बुध स...

रामधारी सिंह 'दिनकर'

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रामधारी सिंह ' दिनकर ' रामधारी सिंह ' दिनकर ' हिन्दी   के एक प्रमुख लेखक ,  कवि   व   निबन्धकार   थे।   वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ   वीर रस   के कवि के रूप में स्थापित हैं। रामधारी सिंह ' दिनकर ' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद ' राष्ट्रकवि ' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज , विद्रोह , आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। रामधारी सिंह ' दिनकर ' का जीवन परिचय- रामधारी सिंह ' दिनकर ' जी का जन्म दिनांक   24 सितंबर   वर्ष 1908   को   बिहार राज्य   के   बेगूसराय जनपद   के सिमरिया गाँव में हुआ था। बचपन से ही यह बहुत ही तीव्र बुद्धि के बालक थे । रामधारी सिंह ' दिनकर ' ने स्वतः ही संस्कृत ,  बांग्ला ,  अंग्रेजी   और   उर्दू   का गहन ...